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ग़ज़ल
हम तो रहवार-ए-ज़बूँ हैं वो मुक़द्दर का सवार
ख़ुद ही महमेज़ करे ख़ुद ही इनाँ खेंचता है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
वो मेरा दोस्त है 'मंज़ूर' लेकिन जब भी मिलता है
ख़ुलूस-ए-दिल में शामिल कुछ रिया-कारी भी होती है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
दूर दूर उड़ता गया मैं नूर के रहवार पर
फिर भी जब भी सर उठाया मुँह पे देखा आसमाँ
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
अबलक़-ए-चश्म-ए-सनम किस नाज़ से गर्दिश में है
ख़ूब कावे होते हैं रहवार आँखें हो गईं