आशिक़-ए-ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ए-दिलदार आँखें हो गईं
मुब्तला-ए-काफ़िर-ओ-दींदार आँखें हो गईं
सुर्ख़ पलकें हो गईं ख़ूँ-बार आँखें हो गईं
देख लो अब ज़ख़्म-ए-दामन-दार आँखें हो गईं
देख कर महव-ए-जमाल-ए-यार आँखें हो गईं
जाम-हा-ए-शर्बत-ए-दीदार आँखें हो गईं
आइयो ऐ अश्क अब बहने लगा है ख़ून-ए-गरम
भेजियो पानी कि आतिश-बार आँखें हो गईं
लड़ गईं तुम से जो आँखें हो गई इक बार सुल्ह
कीजिए दो-तीन बातें चार आँखें हो गईं
कश्ती-ए-मय ले के ऐ साक़ी पहुँच बहर-ए-ख़ुदा
बे तिरे महफ़िल में दरिया-बार आँखें हो गईं
है तसव्वुर बस-कि आँखों में ख़त-ए-रुख़्सार का
आइने की तरह जौहर-दार आँखें हो गईं
ऐ बुत-ए-काफ़िर है बस बे-ऐब ज़ात अल्लाह की
लब तिरे ईसा हुए बीमार आँखें हो गईं
बह गईं पलकें ब-रंग-ए-ख़स मिरी अश्कों के साथ
अब तो नज़रों में गुल-ए-बे-ख़ार आँखें हो गईं
चशम-ए-बद्दूर इन को गर्दिश है अजब अंदाज़ से
ऐ परी आहू-ए-ख़ुश-रफ़तार आँखें हो गईं
मेरे पाँव की तरह हैहात अब गर्दिश में हैं
किस की ये वारफ़्ता-ए-रफ़्तार आँखें हो गईं
ऐन नादानी है अब उन से जो रखिए चश्म-दाश्त
शक्ल-ए-मिज़्गाँ फिर गईं बेज़ार आँखें हो गईं
लख़्त-ए-दिल याक़ूत में आँसू हैं मोती आब-दार
आओ देखो जौहरी बाज़ार आँखें हो गईं
दो तो हैं चश्म-ए-सुख़न-गो गर नहीं है इक दहन
चुप न रहिए क़ाबिल-ए-गुफ़्तार आँखें हो गईं
इश्क़-ए-पिन्हाँ दीदा-ए-गिर्यां ने ज़ाहिर कर दिया
हँसने की जा है लब-ए-इज़हार आँखें हो गईं
अबलक़-ए-चश्म-ए-सनम किस नाज़ से गर्दिश में है
ख़ूब कावे होते हैं रहवार आँखें हो गईं
हर किसी ने आँख जब डाली गुलू-ए-साफ़ पर
हँस के फ़रमाया गले का हार आँखें हो गईं
तोल लेते हैं सदा नज़रों में जिंस-ए-हुस्न को
पल्ला-ए-मीज़ाँ मिरी ऐ यार आँखें हो गईं
है तसव्वुर रोज़-ओ-शब किस की तिलाई रंग का
चश्म-ए-नर्गिस की तरह ज़रदार आँखें हो गईं
कहते हो सब देखते हैं तेरी आँखों से मुझे
सच कहो अग़्यार की बेकार आँखें हो गईं
चलिए अब सहरा से कू-ए-यार उन्हें दिखलाइए
आबलों से पाँव में दो-चार आँखें हो गईं
फूल नर्गिस के बनाए कब वहाँ मे'मार ने
ये हमारी नक़्श-बर-दीवार आँखें हो गईं
ऐ ख़ुदा शाहिद हमारा सुम्मा-वज्हुल्लाह है
जब निगह की बुत पे तुझ से चार आँखें हो गईं
आप सा इन को बनाया इश्क़-ए-तीर-ए-यार ने
है सिरी तार-ए-निगह सूफ़ार आँखें हो गईं
पेश-ए-नर्गिस हाथ फैलाए हैं शाख़ों से दरख़्त
किस को देखेंगे जो अब दरकार आँखें हो गईं
चुप खड़े हैं बन गए हैं नक़्श-बर-दीवार हम
आओ देखो रौज़न-ए-दीवार आँखें हो गईं
साक़ी-ओ-मीना-ओ-साग़र एक आते हैं नज़र
बादा-ए-वहदत से क्या सरशार आँखें हो गईं
रोते रोते हिज्र में सूजे हैं ये चश्मान-ए-तर
जिस्म लाग़र हो गया तय्यार आँखें हो गईं
आशिक़-ए-अब्रू हूँ करना दीदा-ओ-दानिस्ता क़त्ल
जौहरों से तुझ में ऐ तलवार आँखें हो गईं
आँख के डोरों ने तेरे कुछ तो हैं धागे दिए
ऐ सनम जो माइल-ए-ज़ुन्नार आँखें हो गईं
फिर गया वो आ के अब जागे तो क्या हासिल 'वज़ीर'
सो गए जब बख़्त तब बेदार आँखें हो गईं
स्रोत:
Daftar-e-Fasahat (Pg. ebook-151 page-135)
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लेखक:
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
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- संस्करण: 1847
- प्रकाशक: मतबा मुस्तफ़ाई, लखनउ
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