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ग़ज़ल
पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात
जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
रंजिश-ए-बेजा ने उन की कर दिया आलम ही और
ज़िंदगी के नाम की गोया सज़ा पाते हैं हम
क़ादिर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
उन्हीं को रंजिश-ए-बेजा है लेकिन है तो हम से है
मोहब्बत गर न हो बाहम शिकायत दरमियाँ क्यूँ हो
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तुझ को क्यूँ रंजिश-ए-बेजा है अदू का खटका
मैं उठाऊँगा मोहब्बत में ये इल्ज़ाम कि तू