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ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
था जहाँ ये कुछ अयाँ वाँ इंक़लाब-ए-दौर से
यक मिज़ा बरहम ज़दन में कुछ न था वीराना था
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुख़बिरी मेरी हुई चश्म-ए-ज़दन में कैसी
क़स्र-ए-दिल ही में सारा था कि मिस्मार हुआ
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
ख़त्म है शब चेहरा-ए-मशरिक़ से उठती है नक़ाब
दम-ज़दन में रौशनी ही रौशनी हो जाएगी
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
जूँ अश्क-ए-सर-ए-मिज़्गाँ हम फिर न नज़र आए
अज़-बस-के यहाँ वक़्फ़ा इक चश्म-ए-ज़दन का था
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
शादयाने बज रहे हैं आज जिस जा 'नाज़' कल
दम ज़दन में देख लेना क्या समाँ हो जाएगा
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
हर दिन के गुज़रने में हर रात के ढलने में
हर चश्म-ज़दन मंज़िल हर साँस मसाफ़त थी