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ग़ज़ल
शैख़ की मस्जिद से ऐ 'बेदार' क्या है तुझ को काम
सज्दा-गह अपना सनम के आस्ताँ का संग है
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
तिरे हर नक़्श-ए-पा को रहगुज़र में सज्दा-गह समझे
जहाँ तू ने क़दम रक्खा वहाँ मैं ने भी सर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
तिरा जल्वा मेरी शराब है मिरी सज्दा-गह तिरा आस्ताँ
न तलब मुझे मय-ओ-जाम की न दर-ए-मुग़ाँ की तलाश है
वली काकोरवी
ग़ज़ल
तिरा जल्वा मेरी शराब है मिरी सज्दा-गह तिरा आस्ताँ
न तलब मुझे मय-ओ-जाम की न दर-ए-मुग़ाँ की तलाश है
वली काकोरवी
ग़ज़ल
वो जो हुस्न-ए-कुल की दलील था वो ख़याल आ के सजा गया
लड़ीं यूँ निगाह से बिजलियाँ कोई जैसे पर्दे उठा गया
अफ़ीफ़ सिराज
ग़ज़ल
सज्दा-गाह-ए-अहल-ए-दिल बा'द-ए-फ़ना हो जाइए
सफ़्हा-ए-हस्ती पे इक नक़्श-ए-वफ़ा हो जाइए
हिरमाँ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जो सज्दा-गह-ए-इश्क़ की रिफ़अत से हैं वाक़िफ़
वो लोग मिरा नक़्श-ए-क़दम याद करेंगे
औलाद अली रिज़वी
ग़ज़ल
अगर यूँ ही रही गर्दिश में दुनिया तो अजब क्या है
फिर इक दिन सज्दा-गाह-ए-क़ुदसियाँ हो आस्ताँ मेरा
मासूम शर्क़ी
ग़ज़ल
ये क्या कि सज्दा-गाह है हर संग-ए-आस्ताँ
घिसना जबीन को को ख़ाना-ए-ख़म्मार देख कर