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ग़ज़ल
इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई
जब जिस्म ही सारा जलता हो फिर दामन-ए-दिल को बचाएँ क्या
अतहर नफ़ीस
ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
इस वीरान-सरा की मालिक एक पुरानी ख़ामोशी
आवाज़ें देती रहती है मेहमानो! चुप हो जाओ