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ग़ज़ल
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
सरशार सैलानी
ग़ज़ल
'रसा' गर जाम-ए-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझ को भी
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
चश्म-ए-मा रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है
दीदा-ए-पुर-ख़ूँ हमारा साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए
कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
साक़ी ने दिया क्या मुझे इक साग़र-ए-सरशार
गोया कि दो आलम से 'ज़फ़र' बे-ख़बरी दी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
है वही बद-मस्ती-ए-हर-ज़र्रा का ख़ुद उज़्र-ख़्वाह
जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शोख़-ओ-शादाब-ओ-हसीं सादा-ओ-पुरकार आँखें
मस्त-ओ-सरशार-ओ-जवाँ बे-ख़ुद-ओ-होशियार आँखें
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
ऐसा अनोखा ऐसा तीखा जिस को कोई सह न सके
हम समझे पत्ती पत्ती को हम ने ही सरशार किया