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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
गुमाँ तो क्या यक़ीं भी वसवसों की ज़द में होता है
समझना संग-ए-दर को संग-ए-दर आसाँ नहीं होता
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
तुम यूँ ही समझना कि फ़ना मेरे लिए है
पर ग़ैब से सामान-ए-बक़ा मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
जिसे अपना समझना था वो आँख अब अपनी दुश्मन है
कि ये रोने से बाज़ आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ