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ग़ज़ल
मिरी ज़ीस्त इक जनाज़ा है जो राह-ए-वक़्त में है
जो थकेंंगे दिन के काँधे तो सुपुर्द-ए-शाम होगा
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
सरवत हुसैन
ग़ज़ल
क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया
सलीम कौसर
ग़ज़ल
लम्हा लम्हा वक़्त के हाथों किया ख़ुद को सुपुर्द
सब गँवा बैठा तो फिर फ़िक्र-ए-ज़ियाँ मैं ने किया
आज़ाद गुलाटी
ग़ज़ल
ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया
मुझ को सुपुर्द-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दिया
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
अजब मिट्टी के घुलने का मज़ा बारिश में रहता है
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं