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ग़ज़ल
मैं एक तरतीब से लगाता रहा हूँ अब तक सुकूत अपना
सदा के वक़्फ़े निकाल इस को शुरूअ' से सुन रिधम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
शुरू-ए-इश्क़ में सब ज़ुल्फ़ ओ ख़त से डरते हैं
अख़ीर उम्र में इन ही में ध्यान लगता है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
मुझ से शुरू-ए-इश्क़ में मिल के जो तुम बिछड़ गए
बात है ये नसीब की तुम से कोई गिला नहीं
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
'शकील' इस दर्जा मायूसी शुरू-ए-इश्क़ में कैसी
अभी तो और होना है ख़राब आहिस्ता आहिस्ता