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ग़ज़ल
बस-कि हर-यक-मू-ए-ज़ुल्फ़-अफ़्शाँ से है तार-ए-शुआअ'
पंजा-ए-ख़ुर्शीद को समझे हैं दस्त-ए-शाना हम
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ब-तूफ़ाँ-गाह-ए-जोश-ए-इज़्तिराब-ए-शाम-ए-तन्हाई
शुआ-ए-आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर तार-ए-बिस्तर है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम और वो बे-सबब रंज-आशना दुश्मन कि रखता है
शुआ-ए-मेहर से तोहमत निगह की चश्म-ए-रौज़न पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'
चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदा'अ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तालिब की आँख करती है ख़ीरा शुआ-ए-हुस्न
पर्दा है उस का नाम ये बे-पर्दगी नहीं
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
लोग मोहब्बत करने वाले देखेंगे तस्वीर अपनी
एक शुआ-ए-आवारा हूँ आईना-ए-शबनम में हूँ
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-हुस्न की ख़ुद्दारियाँ ख़ुद आ न सका
शुआ-ए-हुस्न को मरकज़ पे ला के देख लिया