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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सीन ख़ाली है बड़ी शीन पे हैं नुक़्ता तीन
साद और ज़ाद में बस फ़र्क़ है इक नुक़्ते से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
तक़ाज़ा वक़्त का ये है न पीछे मुड़ के देखें हम
सो हम को वक़्त के इस फ़ैसले पर साद करना है
हुमैरा राहत
ग़ज़ल
चश्म-ए-मख़मूर वो है काबिल-ए-ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब
दफ़्तर-ए-इश्क़ पे जब तक कि मिरे साद नहीं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
'हफ़ीज़' अपनी तबीअत पर मुझे ख़ुद रश्क आता है
मिरे अशआर पर हज़रत हमेशा साद करते हैं
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
साद सुर्ख़ी से किया किस ने सर-ए-फ़र्द-ए-जमाल
अपने 'आलम में तिरे दीदा-ए-मख़मूर नहीं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
मिरे बदन ने भी इस फ़ैसले पे साद किया
कि दाग़-ए-सज्दा रहेगा फ़क़त जबीं की तरफ़
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
हैं साद उस की आँखें और क़द अलिफ़ के मानिंद
अबरू है नून-ए-नादिर गेसू है लाम गोया
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
वो साफ़ रुख़ पे जो ज़ुल्फ-ए-सियाह-फ़ाम नहीं
पता ये है कि हलब के क़रीब शाम नहीं