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ग़ज़ल
तुम्हारा ग़म भी किसी तिफ़्ल-ए-शीर-ख़ार सा है
कि ऊँघ जाता हूँ मैं ख़ुद उसे सुलाते हुए
रहमान फ़ारिस
ग़ज़ल
मिटाए दीदा-ओ-दिल दोनों मेरे अश्क-ए-ख़ूनीं ने
'अजब ये तिफ़्ल अबतर था न घर रक्खा न दर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
जो बद-ख़ू तिफ़्ल-ए-अश्क ऐ चश्म-ए-तर हैं देखना इक दिन
घरौंदे की तरह से गुम्बद-ए-चर्ख़-ए-कुहन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
तसव्वुर बहर-ए-तस्कीन-ए-तपीदन-हा-ए-तिफ़्ल-ए-दिल
ब-बाग़-ए-रंग-हा-ए-रफ़्ता गुल-चीन-ए-तमाशा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे
जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
तिफ़्ल-ए-दिल को मिरे क्या जाने लगी किस की नज़र
मैं ने कम्बख़्त को दो दिन भी न अच्छा देखा