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ग़ज़ल
निगाह-ए-इश्क़ ओ मस्ती में वही अव्वल वही आख़िर
वही क़ुरआँ वही फ़ुरक़ाँ वही यासीं वही ताहा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है