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ग़ज़ल
लाख तहज़ीब के ग़ारों में छुपे हम 'अख़्तर'
फिर भी उर्यानियत-ए-वक़्त से दामन न बचा
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
उस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में उस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
नहीं जाती मता-ए-लाल-ओ-गौहर की गिराँ-याबी
मता-ए-ग़ैरत-ओ-ईमाँ की अर्ज़ानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हो नक़्श अगर बातिल तकरार से क्या हासिल
क्या तुझ को ख़ुश आती है आदम की ये अर्ज़ानी