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ग़ज़ल
मैदान-ए-कार-ज़ार में 'अख़्तर' कभी भी मैं
ख़ौफ़-ए-सिनान-ए-ज़िल्ल-ए-इलाही न लाऊँगा
अख़्तर शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
अब न पहचाने कोई 'अख़्तर' तो इस का क्या इलाज
उम्र सारी काट दी है तू ने रस्म-ओ-राह में
अख्तर सईदी
ग़ज़ल
हिलाल ओ बद्र के नक़्शे सबक़ देते हैं इंसाँ को
कि नाकामी बिना-ए-कामरानी अब भी होती है
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
जिस से 'अख़्तर' हो मिरे दर्द-ए-मोहब्बत का इलाज
क्या मसीहा-नफ़सों को वो दवा याद नहीं