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ग़ज़ल
मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो
ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर
है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उनवान ग़फ़लतों के हैं क़ुर्बत हो या विसाल
बस फ़ुर्सत-ए-हयात 'फ़िराक़' एक रात है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें
दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ ओ रुख़ आज भी उनवान-ए-ग़ज़ल हैं 'मंज़ूर'
रुख़ उधर गर्दिश-ए-अय्याम का मोड़ा जाए
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
दर को छोड़ा दैर को छोड़ा दार में अब है दिल यारो
क्या उनवान तराशोगे अब क्या इल्ज़ाम लगाओगे
महशर बदायुनी
ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दिल
कितने उन्वान मिले हैं मिरे अफ़्साने को
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
तेरा ये लुत्फ़ किसी ज़ख़्म का उन्वान न हो
ये जो साहिल सा नज़र आता है तूफ़ान न हो