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ग़ज़ल
यही जम्हूरियत का नक़्स है जो तख्त-ए-शाही पर
कभी मक्कार बैठे हैं कभी ग़द्दार बैठे हैं
डॉक्टर आज़म
ग़ज़ल
इबादत-ख़ाना-हा-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ में गया लेकिन
निदा आई कि वापस जा यहाँ ग़द्दार हैं दोनों
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
दा'वा-ए-मोहब्बत है जिन्हें आज चमन से
माज़ी में वही देश के ग़द्दार रहे हैं