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ग़ज़ल
'अजब क्या गर मह ओ परवीं मिरे नख़चीर हो जाएँ
कि बर फ़ितराक-ए-साहिब दौलत-ए-बस्तम सर-ए-ख़ुद रा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
गुल-बूटों के रंग और नक़्शे अब तो यूँही मिट जाएँगे
हम कि फ़रोग़-ए-सुब्ह-ए-चमन थे पाबंद-ए-फ़ितराक हुए
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
सर-ए-फ़ितराक था उस को न था लेकिन नसीबों में
तड़पता छोड़ कर जाता रहा ज़ालिम शिकार अपना
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
कि तीर-ओ-तार को फ़ितराक ही से बाँधते हैं
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
लुत्फ़-ए-क़ातिल में तअम्मुल नहीं पर क्या कीजे
सर-ए-शोरीदा मिरा क़ाबिल-ए-फ़ितराक नहीं