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ग़ज़ल
ज़िंदगी तिश्ना भी है बे-रंग भी लेकिन 'सुरूर'
जब तलक चेहरा फ़रोग़-ए-मय से ताबिंदा न हो
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
जब तक फ़रोग़-ए-मय से न हो सीना नूर-ज़ार
हरगिज़ हरीफ़-ए-मय-कदा असरार-दाँ न हो
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-मेहर से रिंदों का आख़िर काम क्या होगा
ज़मीं पर दौर चलता है फ़लक पर जाम क्या होगा
नातिक़ लखनवी
ग़ज़ल
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
वो जो कैफ़ियत नशे की मय-ए-ख़ुश-गवार में है
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
चमन में सैर-ए-गुल को जब कभी वो मह-जबीं निकले
मिरी तार-ए-रग-ए-जाँ से सदा-ए-आफ़रीं निकले
ज़ाहिद चौधरी
ग़ज़ल
ज़माने की दो-रंगी से उमंगें मिट गईं सारी
कभी था नाज़ हम को भी 'फ़रोग़' अपनी तबीअ'त पर