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ग़ज़ल
इस भरे शहर में 'नश्तर' कोई ऐसा भी कहाँ
रोज़ जो शाम में हम जैसे फ़ुज़ूलों से मिले
अब्दुर्रहीम नश्तर
ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वही मुंसिफ़ों की रिवायतें वही फ़ैसलों की इबारतें
मिरा जुर्म तो कोई और था प मिरी सज़ा कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
राह में फ़ौजों के पहरे सर पे तलवारों की छाँव
आए हैं ज़िंदाँ में भी बा-शौकत-ए-शाहाना हम