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ग़ज़ल
दिखा के हम को हमारा ही क़ाश क़ाश बदन
दिलासे देते हैं देखो तो क़ातिलाँ क्या क्या
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
ऐ मुसव्विर जो हुआ मनक़ूश तेरे हाथ से
वो कहाँ तस्वीर बन सकती किसी से क़ाश की
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
क़ाब-ए-जहाँ पे रक्खे फलों ने मुझे कहा
मेहमान तेरे हिस्से में इक-आध क़ाश है
मोहम्मद इफ़तिख़ारुल हक़ समाज
ग़ज़ल
बहुत सी जम' कर रक्खी थीं उस ने कहकशाएँ
मैं रोया तो मुझे इक क़ाश सूरज की मिली थी