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ग़ज़ल
ख़िश्त पुश्त-ए-दस्त-ए-इज्ज़ ओ क़ालिब आग़ोश-ए-विदा'अ
पुर हुआ है सैल से पैमाना किस ता'मीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चश्म-ए-बंद-ए-ख़ल्क़ जुज़ तिमसाल-ए-ख़ुद-बीनी नहीं
आइना है क़ालिब-ए-ख़िश्त-ए-दर-ओ-दीवार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
निकल कर अपने क़ालिब से नया क़ालिब बसाएगी
असीरी के लिए हम रूह को आज़ाद करते हैं
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
निकाल ऐ चारागर तू शौक़ से लेकिन सर-ए-पैकाँ
उधर निकले जिगर से तीर उधर क़ालिब से दम निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
है नज़ाकत बस कि फ़स्ल-ए-गुल में मेमार-ए-चमन
क़ालिब-ए-गुल में ढली है ख़िश्त-ए-दीवार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जाँ डालता है 'मुसहफ़ी' क़ालिब में सुख़न के
मुश्किल है कि तुम उस की तरह शेर तो ढालो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
गर खिंचे सीने से नावक रूह तू क़ालिब से खींच
ऐ अजल जब खिंच गया वो तीर फिर खींची तो क्या
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
फ़िराक़-ए-यार में मर मर के आख़िर ज़िंदगानी के
रहा सदमा हमेशा रूह ओ क़ालिब की जुदाई का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
अब तो ये शहर है इक क़ालिब-ए-बे-जाँ हमदम
कुछ यहाँ रहने की ख़ुशियाँ न मनाना हरगिज़