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ग़ज़ल
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी
चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
उन की नज़र में क्या करें फीका है अब भी रंग
जितना लहू था सर्फ़-ए-क़बा कर चुके हैं हम