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ग़ज़ल
मुझ से लाग़र तिरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझ से नाज़ुक मिरी नज़रों में समाते भी नहीं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हो गया लाग़र जो उस लैला-अदा के 'इश्क़ में
मिस्ल-ए-मजनूँ हाल मेरा भी फ़साना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
हवा-ए-कू-ए-जानाँ ले उड़े उस को तअ'ज्जुब क्या
तन-ए-लाग़र में है जाँ इस तरह जिस तरह बू ख़स में
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
रोते रोते हिज्र में सूजे हैं ये चश्मान-ए-तर
जिस्म लाग़र हो गया तय्यार आँखें हो गईं
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
उधर सय्याद चश्म-ओ-दाम-ए-ज़ुल्फ़-ओ-नावक-ए-मिज़्गाँ
इधर पहलू में दिल इक सैद-ए-लाग़र नीम-बिस्मिल है
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
लाग़री के साथ बेताबी यही ऐ बहर-ए-हुस्न
ख़ार है ये जिस्म-ए-लाग़र माही-ए-बे-आब का
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
साँस भी उस की है ये जिस्म उसी का ताबे'
ऐ 'ज़फ़र' लाग़र-ओ-मा'ज़ूर हैं हम भी तुम भी