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ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
काफ़ी न मोहर-ए-ख़ुम को हुए लुक्का-हा-ए-अब्र
अब इस क़दर वसीअ' ये ख़ुम-ख़ाना हो गया
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
सू लिख लिख कर परेशाँ हो क़लम लट आप कहते हैं
मुक़ाबिल ऊस के होसे न लिखेंगे गर दो लक मिसरा
क़ुली क़ुतुब शाह
ग़ज़ल
سہنا دیکھیا نس آج کی بیٹھا ہوں شہ کے پاس میں
اے کاش دن نا اوکتا اچتا سو لک ماس میں
सय्यद शाह बुरहानुद्दी जानम
ग़ज़ल
तिल तिरे रखते हैं जागा तीन लक प्यादे की आज
चक तिरे करते हैं दा'वा चार लक असवार का
क़ाज़ी महमूद बेहरी
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले