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ग़ज़ल
वैसे ही तारीक बहुत हैं लम्हे ग़म की रातों के
फिर मेरे ख़्वाबों में यारो वो गेसू लहराएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
सर-ए-सहरा अभी रक़्स-ए-ग़ुबार-ए-क़ैस बाक़ी है
अभी कुछ और लैलाएँ हरीम-ए-ख़ाक से निकलें
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
हबीब आरवी
ग़ज़ल
ख़ाक-बसर फिरती हैं जिस में लैलाएँ दिन-रात 'मुनीर'
मैं ने अपनी ज़ा में एक ऐसा भी सहरा रक्खा है
मुनीर सैफ़ी
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
शाम हुई फिर जोश-ए-क़दह ने बज़्म-ए-हरीफ़ाँ रौशन की
घर को आग लगाएँ हम भी रौशन अपनी रात करें