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ग़ज़ल
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
मौत आती है कभी मादर-ए-मुशफ़िक़ की तरह
इस से हर शख़्स गुरेज़ाँ हो ज़रूरी तो नहीं
जयकृष्ण चौधरी हबीब
ग़ज़ल
क़दम लूँ मादर-ए-हिन्दोस्ताँ के बैठते उठते
मिरी ऐसी कहाँ क़िस्मत नसीबा ये कहाँ मेरा
विनायक दामोदर सावरकर
ग़ज़ल
ये दुनिया जिस की ख़ातिर भागता फिरता है ये इंसाँ
तो फिर क्यों बत्न-ए-मादर से ब-चश्म-ए-नम निकलता है
तौक़ीर ज़ैदी
ग़ज़ल
ज़बाँ की मार खाई है जो मैं ने यारो मादर की
शिकस्ता हो कि इन टुकड़ों को अब तुम पर लुटाता हूँ
यूसुफ़ बिन मोहम्मद
ग़ज़ल
गए दौड़े न आख़िर हज़रत-ए-याक़ूब कनआँ' से
ज़मीं नापे पिदर भी हुस्न-ए-मादर-ज़ाद के आगे