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ग़ज़ल
दर्द-ए-फ़िराक़-ए-यार से दोनों हैं बे-क़रार
क़ाबू में दिल नहीं मुतहम्मिल जिगर नहीं
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
यूँ दिल है हर इक रंज-ओ-अलम का मुतहम्मिल
लेकिन ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ तो नहीं है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
ग़ैर के वास्ते पकड़े है तू हर दम सौ बार
मुतहम्मिल नहीं हम ऐसे कुदूरत की तिरी
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
ग़ज़ल
पस-ए-पर्दा भी लैला हाथ रख लेती है आँखों पर
ग़ुबार-ए-ना-तवान-ए-क़ैस जब महमिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
दश्त-ए-नज्द-ए-यास में दीवानगी हो हर तरफ़
हर तरफ़ महमिल का शक हो पर कहीं महमिल न हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
कहीं इस आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू में भी तलब मेरी
वही अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कभी अपना भी नज़ारा किया है तू ने ऐ मजनूँ
कि लैला की तरह तू ख़ुद भी है महमिल-नशीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ुदा जाने ग़ुबार-ए-राह है या क़ैस है लैला
कोई आग़ोश खोले पर्दा-ए-महमिल से मिलता है