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ग़ज़ल
मशक़्क़त की तपिश में जिस्म का लोहा गलाते हैं
बड़ी मुश्किल से इस मिट्टी को हम सोना बनाते हैं
मुजाहिद फ़राज़
ग़ज़ल
ये किस ग़फ़्लत में हो ऐ दोस्तो बेदार हो जाओ
किसी मर्द-ए-मुजाहिद के लिए तय्यार होना है