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ग़ज़ल
'वसीम' उस से कहो दुनिया बहुत महदूद है मेरी
किसी दर का जो हो जाए वो फिर दर दर नहीं जाता
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-हुस्न का आलम नज़र में है
महदूद-ए-सज्दा क्या मिरा ज़ौक़-ए-जबीं रहे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
सई-ए-फ़हम-ए-ज़ात-ए-बारी और ये महदूद अक़्ल
जिस का हासिल कुछ भी हैरत के सिवा होता नहीं
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
महदूद है नज़्ज़ारा जब हैं यही दो-आलम
या अपनी तरफ़ देखो या मेरी तरफ़ देखो
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
तू भी महदूद न हो मुझ को भी महदूद न कर
अपने नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को मिरी मंज़िल न बना