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ग़ज़ल
मोहब्बत अस्ल में 'मख़मूर' वो राज़-ए-हक़ीक़त है
समझ में आ गया है फिर भी समझाया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
हम अपना ग़म लिए बैठे हैं उस बज़्म-ए-तरब में भी
किसी नग़्मे से अब 'मख़मूर' साज़-ए-दिल नहीं मिलता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
ख़ुदा जब तक न चाहे आदमी से कुछ नहीं होता
मुझे मालूम है मेरी ख़ुशी से कुछ नहीं होता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी
हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें
दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
आज हमें और ही नज़र आता है कुछ सोहबत का रंग
बज़्म है मख़मूर और साक़ी नशे में चूर है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
नहीं था मुस्तहिक़ 'मख़मूर' रिंदों के सिवा कोई
न होते हम तो फिर लबरेज़ पैमाने कहाँ जाते
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
जितने अरमाँ दिल में थे 'मख़मूर' सब मौजूद हैं
एक भी तो अपने मरकज़ से जुदा होता नहीं
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
दलाएल से ख़ुदा तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती
वो इक ऐसी हक़ीक़त है जो पहचानी नहीं जाती