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ग़ज़ल
ज़माम-ए-कार अगर मज़दूर के हाथों में हो फिर क्या
तरीक़-ए-कोहकन में भी वही हीले हैं परवेज़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जुम्बिश-ए-दिल से हुए हैं उक़्दा-हा-ए-कार वा
कम-तरीं मज़दूर-ए-संगीं-दस्त है फ़रहाद याँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
जो शीश-महल में बैठे हुए मज़दूर की बातें करते हैं
ओबैदुर रहमान
ग़ज़ल
ब-ईं रिंदी 'मजाज़' इक शायर-ए-मज़दूर-ओ-दहक़ाँ है
अगर शहरों में वो बद-नाम है बद-नाम रहने दे