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ग़ज़ल
हर रंग-ए-जुनूँ भरने वालो शब-बेदारी करने वालो
है इश्क़ वो मज़दूरी जिस में मेहनत भी वसूल नहीं होती
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी
राह में दश्त नहीं पड़ता था चार घरों की दूरी थी
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
अब के बरस होंटों से मेरे तिश्ना-लबी भी ख़त्म हुइ
तुझ से मिलने की ऐ दरिया मजबूरी भी ख़त्म हुई
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
मज़दूरी पर जाता हूँ तो शेर सिसकते रहते हैं
डॉलर की ख़्वाहिश ने मेरे फ़न-पारों को मार दिया