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ग़ज़ल
दिल को किस शक्ल से अपने न मुसफ़्फ़ा रक्खूँ
जल्वा-गर यार की सूरत है इस आईने में
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
देख कर रू-ए-मुसफ़्फ़ा यार का हैरत हुई
आइने हैं पुश्त-बर-दीवार क़ैसर-बाग़ में
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
नील मुसफ़्फ़ा आँखों से तकते थे जिस्म की चाँदनी को
फुलवारी पे नूर की पर्दे काँच के ताना करते थे
अरसलान राठोर
ग़ज़ल
साइल देहलवी
ग़ज़ल
है कफ़-ए-पा वो मुसफ़्फ़ा कि जिसे ध्यान में ला
पा-ए-नज़्ज़ारा ये कहता है फिसल जाऊँगा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
रख शीशा-ए-दिल गर्द-ए-कुदूरत से मुसफ़्फ़ा
मिट्टी कहीं रखता है कोई काँच के घर में
सरफ़राज़ बज़्मी
ग़ज़ल
दोनों आलम के तमाशे इस में आते हैं नज़र
जाम-ए-जम है दिल किसी का गर मुसफ़्फ़ा हो गया
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
सोचता हूँ ऊला मिसरा जब कभी 'नायाब' मैं
ख़ुद को लिखवाता है बढ़ कर मिस्रा-ए-सानी मुझे
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
ये मिसरा लिख दिया किस शोख़ ने मेहराब-ए-मस्जिद पर
ये नादाँ गिर गए सज्दों में जब वक़्त-ए-क़याम आया
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए
जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए