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ग़ज़ल
ब-रोज़-ए-हश्र हाकिम क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा होगा
फ़रिश्तों के लिखे और शैख़ की बातों से क्या होगा
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
मेरे उज़्र-ए-जुर्म पर मुतलक़ न कीजे इल्तिफ़ात
बल्कि पहले से भी बढ़ कर कज-अदा हो जाइए
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
शे'र ग़ैरों के उसे मुतलक़ नहीं आए पसंद
हज़रत-ए-'अकबर' को बिल-आख़िर तलब करना पड़ा
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इफ़रात-ए-शौक़ में तो रूयत रही न मुतलक़
कहते हैं मेरे मुँह पर अब शैख़-ओ-शाब क्या क्या
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क्या तजाहुल है कि वो फ़रमाते हैं अग़्यार से
मैं नहीं पहचानता मुतलक़ कि 'आग़ा' कौन है
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
तू वो यकता-ए-मुतलक़ है कि यकताई में अब तेरी
कोई शिर्क-ए-दुई का हर्फ़ ला सकता है क्या क़ुदरत
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
रब तो है शाफ़ी-ए-मुतलक़ है शिफ़ा-बख़्श वही
सर दर-ए-ग़ैर पे तुम अपना झुकाया न करो