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ग़ज़ल
सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हूँ जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़लक हद है कि सरहद है ज़मीं मादन है या मदफ़न
मुझे बेचैन ही रखते हैं ये वहम ओ यक़ीं मेरे
अंजुम ख़लीक़
ग़ज़ल
ख़ाक तुर्बत की मिरी देख चमकती अहबाब
जी में कहते हैं मगर मादन-ए-सीमाब है याँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
ख़याल-ए-ख़ैर हसीनों में है कि वक़्त-ए-ख़िराम
ज़मीं को मादन-ए-लाल-ओ-गुहर बनाते हैं
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
आँखों ने बे-क़रारी-ए-तिफ़्ल-ए-सरिश्क से
पैदा किया है मादन-ए-सीमाब का ख़वास
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल
हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की
मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं