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ग़ज़ल
अगर 'उश्शाक़ के मक़्सूम में था सदमा-ए-हिज्राँ
बनाए जाते उन के दिल भी या-रब संग-ओ-आहन के
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हमदर्दी के मुँह पर फ़न की आँखें खुलती हैं ऐ 'शाद'
गोया इंसानी हमदर्दी शाएर का मक़्सूम रही है