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ग़ज़ल
मुलूकीय्यत इबारत ख़ून से आहों से अश्कों से
हुकूमत के अँधेरों को ख़िलाफ़त ही करे रौशन
खुबैब ताबिश
ग़ज़ल
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़राबी कुछ न पूछो मुलकत-ए-दिल की इमारत की
ग़मों ने आज-कल सुनियो वो आबादी ही ग़ारत की
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क़फ़स ज़माना ओ जाँ मुर्ग़ ओ आशियाँ मलकूत
क़फ़स में मुर्ग़ है बेताब आशियाँ के लिए
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
ग़ज़ल
अभी तक तो नतीजा भी पस-ए-दीवार है जानाँ
तिरी इस महवियत से कल का अंदाज़ा न हो जाए