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ग़ज़ल
ख़ुदा ने मुझ को बिन-माँगे ये नेमत दी है 'मंज़र'
तरसते हैं बहुत से लोग ममता देखने को
मंज़र भोपाली
ग़ज़ल
तेरा 'मंज़र' जो कभी था अंदलीब-ए-ख़ुश-नवा
खो गया दुनिया से यूँ चुप साध ली तेरे बग़ैर
मंज़र लखनवी
ग़ज़ल
मुस्कुराता है ग़म-ए-ज़ीस्त में 'मंज़र' ऐसे
फूल जिस तरह गुलिस्ताँ में खिले ख़ार के पास
जावेद मंज़र
ग़ज़ल
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था