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ग़ज़ल
धोई क्यूँ अश्क के तूफ़ान से लौह-ए-महफ़ूज़
सर-नविश्त अपनी ही 'नासिख़' ने मिटाई होती
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
ज़ुबैर फ़ारूक़
ग़ज़ल
बे-रब्तियों ने 'क़द्र' मिटाई जो रब्त की
है गोश्त को भी अपने न अब उस्तुख़्वाँ से रब्त
क़द्र ओरैज़ी
ग़ज़ल
मिटाई अपनी हस्ती हम ने इश्क़-ए-जान-ए-जानाँ में
फ़ना में देख कर रंग-ए-बक़ा को मो'तबर जाना
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
न कहा था कि तू क़ातिल हो मिरा मैं मक़्तूल
सरनविश्त अपनी किसी ही से मिटाई न गई