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ग़ज़ल
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
लगती है फिर भी शहर में खुल के सदा-ए-इश्क़
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
लगती है फिर भी शहर में खुल के सदा-ए-इश्क़