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ग़ज़ल
जानते हो नहीं चलना तो यूँ चलते क्यूँ हो
आज भी ग़ाफ़िल-ए-मंज़िल हो निकलते क्यूँ हो
शाइस्ता महजबीं
ग़ज़ल
कहते हैं याँ कि मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं''
प्यारे जो हम से पूछो तो याँ क्या कहीं नहीं
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
यादों से ख़ाली दिल की ये किन वादियों के बीच
तन्हा खड़ी हुई हूँ मैं तन्हाइयों के बीच
महजबीं नज्म
ग़ज़ल
चमन में सैर-ए-गुल को जब कभी वो मह-जबीं निकले
मिरी तार-ए-रग-ए-जाँ से सदा-ए-आफ़रीं निकले
ज़ाहिद चौधरी
ग़ज़ल
जबीन-ए-मेहर-ओ-मह में क्या सबब इतनी सफ़ाई का
उन्हें भी शुग़्ल है क्या तेरे दर पर जब्हा-साई का
मोहम्मद इब्राहीम आजिज़
ग़ज़ल
जबीन-ए-मेहर-ओ-मह में क्या सबब इतनी सफ़ाई का
उन्हें भी शग़्ल है क्या तेरे दर पर जब्हा-साई का