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ग़ज़ल
हम साँझ समय की छाया हैं तुम चढ़ती रात के चन्द्रमाँ
हम जाते हैं तुम आते हो फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
नहीं करता गवारा राह-रौ के दिल पे मैल आना
उड़ा करता है रस्ते से अलग हट कर ग़ुबार अपना