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ग़ज़ल
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ुन-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़ूँ है दिल ख़ाक में अहवाल-ए-बुताँ पर या'नी
उन के नाख़ुन हुए मुहताज-ए-हिना मेरे बा'द
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पहली शाम नज़र आया था बिल्कुल ऐसा जैसे नाख़ुन
चौदह दिन में देखो कितना बड़ा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
दरमांदगी में 'ग़ालिब' कुछ बन पड़े तो जानूँ
जब रिश्ता बे-गिरह था नाख़ुन गिरह-कुशा था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नाख़ुन करें हैं ज़ख़्मों को दो दो मिला के एक
थे आठ दस सो हो गए अब छिल के चार पाँच