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ग़ज़ल
फिर जो है बाग़-ए-नबुव्वत और इमामत की बहार
ग़ुंचा-ए-गुल सब्ज़ा-ए-अम्बर-फ़िशाँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हसरतें पलने लगी हैं फिर नबुव्वत के लिए
कुछ दिनों में क्या ख़बर पैग़म्बरी होने लगे
मुंतज़िर क़ाएमी
ग़ज़ल
गिरा दूँ फ़ैज़-ए-एजाज़-ए-नुबुव्वत से वो मोमिन हूँ
छुपाएँ फिर मुख़ालिफ़ गर म्यान-ए-आस्तीं पत्थर
हबीब मूसवी
ग़ज़ल
यही है मिनहज-ए-नबवी यही कार-ए-नुबुव्वत है
कि इंसाँ की ग़ुलामी से रहे आज़ाद हर गर्दन
खुबैब ताबिश
ग़ज़ल
यहीं थी जो नज़र आई थी मश'अल थी कि आतिश
नबुव्वत थी कि चिंगारी ज़मीं पर ही मिली थी
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
कि जैसे मैं ने नबुव्वत का कर दिया ए'लान
कुछ इस तरह मिरा चर्चा तिरे नगर में था
होश नोमानी रामपुरी
ग़ज़ल
ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए