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ग़ज़ल
नस्ल-ए-नौ के लिए मंज़िल का नविश्ता रख दे
राह में कोई मिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रख दे
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
मेरे अज्दाद ने सौंपी थी जो मुझ को 'रज़्मी'
नस्ल-ए-नौ को वो क़बा दे के चला जाऊँगा
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
बस लिहाज़न फेंक कर सिगरेट किनारे हो गया
मुझ को नस्ल-ए-नौ की ये शर्मिंदगी अच्छी लगी
सय्यद इक़बाल रिज़वी शारिब
ग़ज़ल
नहीं नहीं अभी दिलों की बस्तियाँ उजाड़ दो
कि चल रही ये नस्ल-ए-नौ बुराइयाँ लिए हुए
प्रणव मिश्र तेजस
ग़ज़ल
ताकि पत्तों का जड़ों से सिलसिला दाइम रहे
सीख ले ऐ नस्ल-ए-नौ अस्लाफ़ के आदाब सब