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ग़ज़ल
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
ग़ुंचे अपनी आवाज़ों में बिजली को पुकारा करते हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
कभी अपना भी नज़ारा किया है तू ने ऐ मजनूँ
कि लैला की तरह तू ख़ुद भी है महमिल-नशीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
इसी दरिया से उठती है वो मौज-ए-तुंद-जौलाँ भी
नहंगों के नशेमन जिस से होते हैं तह-ओ-बाला