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ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
'इंशा' जी क्या उज़्र है तुम को नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ नज़्र करो
रूप-नगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
यूसुफ़-ए-मिस्र-ए-मोहब्बत कैसा अर्ज़ां बिक गया
नक़्द-ए-दिल क़ीमत हुई इक बोसा बैआ'ना हुआ
रिन्द लखनवी
ग़ज़ल
नक़्श-ए-इबरत दर नज़र या नक़्द-ए-इशरत दर बिसात
दो-जहाँ वुसअ'त ब-क़द्र-ए-यक-फ़ज़ा-ए-ख़ंदा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़ीमत में दीद-ए-रुख़ की हम नक़्द-ए-जाँ लगाते
बाज़ार-ए-नाज़ लगता दिल की ख़रीद होती
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
नक़्द-ए-जाँ क्या है ज़माने में मोहब्बत हमदम
नहीं मिलती किसी क़ीमत मुझे मा'लूम न था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दिल ओ दीं नक़्द ला साक़ी से गर सौदा किया चाहे
कि उस बाज़ार में साग़र माता-ए-दस्त-गर्दां है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
तो फ़सुर्दगी निहाँ है ब-कमीन-ए-बे-ज़बानी