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ग़ज़ल
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
कहाँ तक कुछ न कहिए अब तो नौबत जान तक पहुँची
तकल्लुफ़-बर-तरफ़ ऐ ज़ब्त नाला दिल से निकलेगा